Tuesday, 7 June 2022

मौत का सौदागर

मौत का सौदागर 

विजय का फ़ोन आया, मैंने फ़ोन उठाया, उठाते ही उधर से आवाज आयी.... “अबे मौत के सौदागर .. ले आया बच्चो को मौत का सामना करवा के”. बस, यहीं से अपने यात्रा वृतांत का शीर्षक तय कर लिया.

इसकी शुरुआत होती है कैलेंडर में छुट्टी देखने से. कैलंडर देखते हुए पता लगा कि अप्रैल में 4 दिन की छुट्टी है 14 से लेके 17 तक. सोच लिया था कि घुमने जाना है . चाहे अकेले ही जाना पड़े या किसी के साथ. हालांकि इससे पहले भी मैं अकेले यात्रा कर चूका हूँ. पर समूह में यात्रा करना हमेशा ही ज्यादा मजेदार रहता है. तो दोस्तों में चर्चा करना शुरू कर दिया.कईयों से बात हुई, कईयों ने फाइनल करके रद्द भी किया... तो इस तरह से हम 5 लोगों का जाना तय हुआ. जगह भी तय हो गई. हम सबने तुंगनाथ, चोपता जाना फाइनल किया. मैंने अंतिम बचे 5 बस टिकट ऑनलाइन बुक कर दिये थे. शाम 9 बजे कश्मीरी गेट, दिल्ली से बस चलने वाली थी. अपने बैग में क्या क्या पैक करना है यह सारी बाते तय हो चुकी थी. चलिए अब आपको अपनी टीम से मिलवाते हैं.

टीम का परिचय:-  पहला नाम वेरा... 12 क्लास में पढने वाली वेरा, जो उम्र में सबसे छोटी मेम्बर भी थी. पर ट्रेक पर जाने वाली सबसे अनुभवी मेम्बर भी थी. वेरा का स्वभाव थोडा चंचल है. इस बार वेरा मेरे साथ तीसरी बार घुमने जा रही थी. इससे पहले हम आली, गोर्शन बुगियाल, भविष्य बद्री, माना गाँव, और हर की दून घुमने जा चुके है. वेरा का हमारे साथ आना सबसे आखिर में तय हुआ. जिस दिन हम जाने वाले थे और मुझे अपनी बाइक वेरा के घर खड़ी करनी थी तब उसके पापा ने हमसे पूछा कि कितने बजे की बस है तो मैंने बताया कि बस 9 बजे की है, उन्होंने कहा तुम बस अड्डे पहुँचो मैं वेरा को लेके आता हूँ. तो ऐसे वेरा हमारे समूह की 6 वीं मेम्बर बनी. दूसरा नाम ललित.... हम ऑफिस में साथ-साथ काम करते हैं वह फिनांस विभाग में है और मैं एडमिशन विभाग में. हम दोनों साथ ही बैठते हैं. वह 34 साल का है और शादीशुदा है. एक बेटा भी है. एक नंबर का मस्तीखोर है और हमेशा चुटकुले सुनाता रहता है. उसके चुटकुलों को हमने PJ(पुअर जोक्स) नाम दिया है.  ट्रेक पर जाने का बिलकुल भी अनुभव नहीं है. अपने परिवार के साथ वैष्णो देवी घुमने का उसका प्लान रद्द हो चुका था. लेकिन उसे घुमने जाना था तो हमारे समूह के साथ शामिल हो गया. तीसरा नाम यामिनी..... 21 साल की है. घुमने की शौक़ीन है. लेकिन अकेले घुमने में ज्यादा सहज महसूस करती है. समूह के साथ घुमने के लिए उसे मनाया और एक नया अनुभव होगा इसलिए मान भी गयी. उसके पिता श्री दत्तात्रेय मिश्रा उत्तराखंड में अध्यापक हैं इसलिए  पहाड़ों में 10 साल रह चुकी है. एक नंबर की जिद्दी है और काफी लड़ाकू भी है. अपनी ही दुनिया में खोई भी रहती हैं. वो कहती है कि उसे दुनिया से कोई मतलब नहीं है और उसका जो मन आये वो करती है. कुल मिला के 21 साल के एक महत्वकांक्षी नौजवान के मन में जो उथल-पुथल और एनर्जी होती है वो सब उसमे साक्षात् नजर आती है. चौथा नाम मोहित .... 25 साल का है. ग्राफ़िक्स डिज़ाइनर है. पिछली बार मेरे साथ ही रूपकुंड ट्रेक पर जा चुका है. तभी पहली बार पहाड़ से सामना हुआ था मोहित का. इसके आलावा पहाड़ों का और घुमक्कड़ी का कोई ख़ास अनुभव नहीं है पर शौक बहुत है. पांचवा नाम शालू .... 24 साल की है. कानून की पढ़ाई पढ़ चुकी है और एक छोटी सी प्राइवेट नौकरी करती है. अड़ियल स्वभाव है. कुछ ठान लेती है तो उसे कर भी देती है. स्वांस सम्बन्धी बिमारी है. पर घुमने का बहुत शौक है. पहली बार पहाड़ देखने जा रही थी, इसलिए बहुत ज्यादा उत्साहित भी थी. पर डर भी था कहीं उसकी बिमारी की वजह से कोई दिककत न हो जाये. छटवां नाम सनी..... यानी कि मैं.


















फोटो 1: टीम बायं से दायं (सनी, वेरा, ललित, शालू, मोहित)



फोटो 2: टीम बायं से दायं (यामिनी, वेरा, सनी)

सफ़र की कहानी:- हम 6 थे और हमारी 5 सीटें बुक्ड थी... तो छटवी सीट का इंतज़ाम करना था. बस पूरी तरह से रिजर्व्ड थी कोई भी सीट खाली नहीं थी तो कंडक्टर से बात की...बस की सबसे आगे की सिंगल विंडो सीट के बिलकुल पीछे एक लकड़ी का फट्टा था जिसपे बस बैठा जा सकता था, टेक नहीं लगाईं जा सकती थी. तो उस सीट को हमन बुक कर दिया और बारी बारी से उसपे बैठके सफ़र पूरा करने की योजना हमने बना ली. सबसे पहले मोहित बैठा, फिर यामिनी बैठी, फिर थोड़ी देर मैं और मोहित साथ में बैठे. और फिर ललित बैठा. रस्ते में रुकते गप्पे मारते, खाते पीते हम सबसे पहले पहुंचे खतौली, फिर ऋषिकेश, ऋषिकेश आते ही पहाड़ों की हलकी सी ठंडक और खुशबु महसूस होना शुरू हो गई. फिर हम पहुंचे रुद्रप्रयाग  फिर श्रीनगर और फिर आखिर में 9 बजे बस ने हमे कुंड नामक जगह पर छोड़ दिया. बस में हमने 2 लोगों से दोस्ती भी की. एक तमिलनाडु से था जो दिल्ली में रिसर्च का काम करता था. दूसरा रक्षा मंत्रालय में क्लेरिकल काम करता था. ज्यादातर लोग बस में इन्ही 4 दिनों की छुट्टी में घुमने जाने वाले लोग थे.

 

फोटो 3: वेरा रास्ता दिखाते हुए

 

 

फोटो 4: कुंड से चोपता का रास्ता

 

खैर रात का सफ़र ख़त्म हुआ, हम कुंड पहुंचे जहाँ से चोपता 35 किमी दूर था. छुट्टी के दिन थे तो घुमने वाले खूब आये हुए थे. इस वजह से चीज़ों के दाम भी खूब ज्यादा थे. हालांकि देश में महंगाई भी कम नहीं है. कुंड से हमने टेक्सी बुक की 250 रु प्रति सवारी सीधे चोपता के लिए. बीच में उखीमठ होके भी जाया जा सकता है. अभी तक जो पहाड़ हम देख रहे थे वो बंजर से थे जैसे तेज़ धुप में जल गए हों और ठण्ड भी बहुत ज्यादा महसूस नहीं हो रही थी लेकिन जैसे ही हमने उखीमठ पार किया तो पहाड़ों की रंगत में फर्क महसूस होना हमें शुरू हुआ. वहां पहाड़ थोड़े जयादा हरे-भरे थे, एक नमी सी महसूस हो रही थी पहाड़ और पेड़ों में, जैसे किसी ने सुबह जल्दी उठके सब कुछ धोया हो और उन पेड़ों को जमीन में रोपा और और ताज़ा-ताज़ा हरा रंग किसी चित्रकार से करवाया हो. चीड के पेड़, देवदार के पेड़, बाँझ के पेड़ और बुरांस के फूलो का पीक सीजन था. हर तरफ लाल, गुलाबी, सफ़ेद रंग के बुरांस के फूल मंत्रमुग्ध कर रहे थे. जो पहली बार पहाड़ देख रहे थे उनके मुंह  से बस वाह निकल रहा था. और इस तरह इन सुंदर दृश्यों का आनंद लेते हुए  हम तक़रीबन 10 बजे तक चोपता पहुंच गये. टेक्सी से उतरते ही हमने एक होटल में बड़ा सा कमरा बुक किया जिसमे 2 डबल बेड थे. 1200 में होटल बुक हुआ. फिर हम फ्रेश हुए और खाना खाया. 11:00  बजे तक सब फ्री हो गये. सोचा अब क्या किया जाये. तो तय हुआ कि चलो चलते हैं तुंगनाथ. अगर आज ही तुंगनाथ कर लेंगे तो 1 दिन बच जायेगा, उसमे कहीं और घूम लेंगे. सब लोग अपने चश्मे लेकर, जैकेट पहन कर निकल पड़े.


फोटो 5: यहीं खाना खाया था और बगल में ही होटल भी था.



फोटो 6: यहीं से तुंगनाथ की चढ़ाई शुरू हुई

दिन वाकई बहुत खुबसूरत था, धूप खिली हुई थी चारो तरफ बुरांस के पेड़ों पर बुरांस के लाल, गुलाबी, सफ़ेद फूलों के गुच्छे लदे हुए थे. एक तरफ बर्फीली चोटियाँ दूर नजर आ रही थी. सैलानियों की खूब चहल-पहल थी. सब सुन्दर-सुन्दर रंग-बिरंगे कपडे पहन कर अपने बच्चो को कंधे पर बिठाकर ट्रेक पर जा रहे थे. ऐसे में हम भी रोक नहीं पाए थे अपने आपको. तो जैसा तय हुआ था वैसे ही हम चल निकले. बुरांस के फूलो की गुलाबी सी आभा लिए हुए जंगल के बीच जाती छोटी सी कंक्रीट की बनी पगडण्डी पर चलते हुए हमारे सफर की शुरुआत हुई.  थोड़ी ही दूर चले होंगे कि फोटो खींचना और खिंचवाना शुरू हो गया, क्यों न होता वो जगह ही इतनी खुबसूरत थी. इस ट्रेक पर एंट्री फीस भी लगती है, फीस लेने वाला सरकारी मुलाजिम रास्ते में ही बनी एक शेड के नीचे बैठ के सबकी एंट्री कर रहा था. एक आदमी का 150 रुपया, अगर छात्र है तो 75 रूपये. यामिनी के पास अपने कॉलेज की ID थी तो हम सबने प्रति व्यक्ति 75 रूपये बचा लिये. आगे बढे तो एक कुत्ता मिला जो पेड़ो पर उछल कूद मचा रहे बंदरों पर भौंक रहा था. जब हम वहां पहुंचे तो वो हमारे साथ हो लिया जैसे बंदरों से हमें बचाना उसने अपनी जिम्मेदारी मान लिया हो. हमने उसका नाम टाइगर रख दिया. और टाइगर बुलाने पर वह पास भी आने लगा. उसके साथ ही हमें एक माँ उसका 3 साल का बच्चा मिला. बच्चा उपर चढ़ते-चढ़ते परेशान हो गया थे और कह रहा था कि माँ वापिस चलो. हम मिले तो उसके साथ थोड़ी बाते की खेल-कूद किया तो उसे मजा आने लगा और वो धीरे- धीरे हमारे साथ ही चलने लगे.

फोटो 7: बुरांस के फूलों से लदे हुए बुरांस के पेड़

 

फोटो 8: रास्ते में मिला टाइगर और पीछे फैला रोहिणी बुग्याल

बुरांस का जंगल खत्म हुआ ख़त्म होते ही रोहिणी बुग्याल सामने था. बहुत बड़ा घास का मैदान जिसमे थोड़ी-थोड़ी दुरी पर कहीं-कहीं बुरांस के पेड़ थे. और ठीक सामने बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियाँ, बुग्याल की हरी घास और बुरांस के गुलाबी फूल मिलके उस बुग्याल को बहुत खुबसूरत रूप दे रहे थे. उसे देख कर सब उत्साहित हो गये और फिर से फोटो खींचने और खिंचवाने का दौर शुरू हुआ. थोड़ी देर वहीँ बैठ के उस नज़ारे को हम देखते रहे. फिर सोचा कि हम पहले ही लेट हैं इसलिए फिर से चढ़ना शुरू कर दिया. इस बार सीधे रास्ते पर न चलके शोर्ट-कट मार-मार कर हमने थोड़ी दुरी को जल्दी से कवर किया.

 

 

फोटो 9: रोहिणी बुग्याल में ललित और उसका पोज़

 

लगभग 1:30 बज चूका था. मौसम बदलना शुरू हो गया. बारिश की हल्की-हल्की बुँदे पड़ रही थी. थोडा उपर जाने पर बारिश तेज़ हो गई. एक शेल्टर में हमने शरण ली. वहां और भी लोग थे. थोड़ी देर में बारिश के साथ बर्फ पड़ना शुरू हुई. यामिनी, ललित, वेरा और शालू ने पहली बार बर्फ को गिरते हुए देखा था. सब लोग उत्साहित हो गए और ख़ुशी के मारे चिल्लाने लगे. इन्हें देख के और लोगों ने भी अपनी ख़ुशी जाहिर की. एक यूट्यूबर ने इस माहौल को रिकॉर्ड करने के लिए अपना कैमरा on किया. जैसे ही on किया तो उनके कैमरा की मेमोरी चिप नीचे गिर गई. चिप का साइज़ बहुत छोटा था तो उनके लिये उसे ढूँढना बड़ा मुश्किल हो गया. हम सब लोगों ने मिलके उनकी मदद की और वो चिप मिल गई. इस बात से खुश होके उन्होंने हम लोगों को अपनी विडियो में शामिल करने का वादा किया और हम लोगों का इंटरव्यू लिया. बारिश गिरना बंद हुई और हम लोगों ने फिर से चलना शुरू कर दिया.

यामिनी सबसे आगे थी बाकी, हम सब लोग साथ थे. 3000 मीटर ऊंचाई रही होगी तो मैंने और मोहित ने मिलके फैसला लिया कि अब सब लोग साथ ही चलेंगे. तो यामिनी को हमने कहा कि यामिनी अब तुम सबसे पीछे चलोगी और सबसे आगे शालू चलेगी क्यूंकि शालू सबसे धीमे चल रही थी और यामिनी सबसे तेज़. शायद इस बात का यामिनी को बुरा लगा उसका मिजाज़ एकदम से बदल गया. मैंने एक उदहारण देकर उसको समझाने की कोशिश की “झुण्ड में सबसे मजबूत भेड़िया सबसे पीछे चलता है, और सबसे कमजोर सबसे आगे” लेकिन उसे समझ नहीं आया और झल्लाहट में उसने मुझे जवाब दिया कि “ज्यादा लिटरेचर और फिलोसोफी मत झाड”. बाकियों ने भी समझाने की कोशिश की लेकिन उसका रवैया वही रहा. उसे लगता रहा कि उसकी आजादी को छीना जा रहा है. खैर फिर भी हम सब लोग साथ ही चलते रहे.

अब तुंगनाथ सामने नजर आने लगा था. करीबन 1 किमी दूर रहा होगा. अब हम इतनी उंचाई पर थे जहाँ पेड़ नहीं थे. बस कुछ पहाड़ी घास और कहीं-कहीं गिरी हुई बर्फ के ढेर नजर आ रहे थे. मोहित को एलर्जी है, हर दुसरे दिन उसको  एलर्जी होने पर दवा लेनी पड़ती है, जिसे लेकर उसे बहुत थकान और नींद जैसा महसूस होता है. अभी आधे किमी का सफर बाकी था और उसे दवा लेनी पड़ी. दवा ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया. और मोहित के लिए चलना बड़ा ही मुश्किल काम हो गया. तो उसे धकेलते हुए मैं उसको साथ लेके आ रहा था. बाकी लोग थोडा सा आगे चल रहे थे. और तूफ़ान शुरू हो गया था. खूब तेज़ हवाएं चल रही थी. ऐसा अजीब तूफ़ान था कि हवाए हर तरफ से आ रही थी और तेज़ रफ़्तार में आ रही थी. तुंगनाथ से 100 मीटर की दुरी रही होगी कि हल्की बर्फ़बारी भी शुरू हो गई. जल्दी जल्दी चलके हम तुंगनाथ पहुंचे और शेल्टर में जगह ली. उस टाइम मन्दिर में 100 लोग के करीब रहे होंगे. बर्फ़बारी खूब तेज़ हो रही थी. देख के बहुत अच्छा लग रहा था. मन्दिर के कपाट अभी नहीं खुले थे तो लोग बहार से ही मन्दिर के दर्शन कर रहे थे. ठण्ड बहुत थी सबने अपनी जैकेट निकाल ली थी.


फोटो 10: तुंगनाथ से ठीक पहले

तकरीबन 3:30 बजे होंगे. 3 बजे के बाद ऊँचे पहाड़ में तूफ़ान और बारिश होती ही है इसीलिए कहा जाता है कि पहाड़ों में 3 बजे तक अपने ठिकाने पहुंच जाना चाहिए. और ऐसे में हम तुंगनाथ में थे और मौसम खराब था, बर्फ गिर रही थी और चारों तरफ से अजीब सा तूफ़ान आया हुआ था, जिसकी हवाए हर तरफ से आ रही थी और हर तरफ को जा रही थी. थोड़ी देर में तूफ़ान कुछ शांत हुआ और बर्फ गिरनी भी बंद हो गई.

चंद्रशिला वहा से 1.5 किमी ऊंचाई पर था. मेरा बड़ा मन हो रहा था कि यहाँ तक आ ही गए हैं तो चंद्रशिला भी होके आ ही जाते है. लेकिन हमारी टीम के लोग इसके लिए तैयार नहीं थे. मैंने सोचा कि लोगो से पूछता हूँ अगर कोई चलने के लिए तैयार हो जायेगा तो आधे घंटे में जाके वापिस आ जायेंगे. तब तक मेरे साथी यहाँ आराम कर सकते थे. मैंने पूछा “है कोई माई का लाल जो चंद्रशिला जाने के लिए तैयार है”. एक गुजरात से ग्रुप आया था 8 लोगों का, वह ग्रुप चलने को तैयार हो गया. यह सुनके हमारा ग्रुप भी चलने को तैयार हो गया.

चंद्रशिला की चढ़ाई शुरू हुई. एक तरफ पहाड़ और एक तरफ खाई और बीच में एक छोटा सा पथरीला ट्रेक जिसपे हमे चलना था, यहाँ से हमारी शुरुआत हुई चंद्रशिला चढ़ने की. सबसे आगे यामिनी थी. फिर हमारी टीम और उसके बाद गुजरातियों की टीम. खूब तेज़ी से चढ़ना हमने शुरू किया. 2 मोड़ मुड़ते ही पहाड़ी की  रिज पर पहुंच गए और नजारा एकदम से बदल गया. एक तरफ बुग्याल, एक तरफ छुपता हुआ सूरज और उसकी मद्धिम रौशनी में नहाये हुए सुनहरे से पहाड़, एक तरफ बर्फीली चोटियाँ.


अभी भी सबसे आगे यामिनी ही थी. उसके आगे 2 और लोग थे जो पहले से चढ़ रहे थे. लगभग 1 किमी चढ़े होंगे कि पहले तो एक दम से अँधेरा छा गया और धीरे धीरे हवाएं चलना शुरू हो गई. जब से हमने चढ़ाई शुरू की थी मौसम तभी से बिगड़ रहा था, ठीक हो रहा था तो हमने इसे इग्नोर किया और चढ़ना जारी रखा. मैं यामिनी के साथ रहने की कोशिश कर रहा था यह सोच के कि कोई अकेला न रहे. लेकिन वो पहले से ही गुस्सा थी और सबसे आगे सबसे जल्दी पहुंच जाना चाहती थी. मैं कभी पीछे वाले साथियों के साथ रहता तो कभी यामिनी के साथ पर जब मौसम खराब होना शुरू हुआ और हवाएं बहुत तेज़ हो गयी और तूफ़ान में बदल गई. वैसा ही अजीब तूफ़ान जो नीचे तुंगनाथ में भी आया था जिसमे हर तरफ से हवाएं बह रही थी. नीचे से उपर, उपर ने नीचे, पूरब से पश्चिम पश्चिम से पूरब, उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर ... हर तरफ से हवाएं बहुत तेज़ बह रही थी. और अब हवाओं के साथ बर्फ गिरनी भी शुरू हो गई थी. चंद्रशिला से  लगभग 200 मीटर पहले तूफ़ान और बर्फ़बारी इतनी तेज़ हो गई थी कि हमने अब नीचे जाने का फैसला किया. मैंने अपने पीछे वाले साथियों से धीरे धीरे नीचे जाने के लिए कहा और मैं खुद यामिनी जोकि सबसे आगे थी और उपर चंद्रशिला पहुंच गई थी को लाने तेज़ी से दौड़ के चढ़ने लगा. हर तरफ से बर्फ गिर रही थी. बर्फ़बारी इतनी ज्यादा घनत्व लिए हुए थे कि मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. मैं यामू, यामू (जोकि यामिनी का प्यार का नाम है) चिल्ला के आगे बढ़ रहा था. चंद्रशिला 50 मीटर बचा होगा तभी मुझे सनिया...सनिया (जोकि मेरा प्यार का नाम है) सुनाई दिया और मुझे यामिनी दिखाई दी उसके पीछे दो और लोग थे. उनको साथ लेके हमने नीचे की तरफ तेज़ी चलना शुरू किया................................. तभी मेरी आंखे खुली तो मैंने खुद को जमीन पे बैठा हुआ पाया. यामिनी मेरी कमर को सहला रही थी और पूछ रही थी ठीक है तू..... मैंने उससे पूछा कि क्या हुआ तो उसने बताया कि बिजली तेरे कंधे पर गिरी.... और गिरते ही तू भी जमीन पर बेहोश होकर गिर गया... 15 सेकंड में मुझे होश आया था. मैं उठा और तेज़ी से नीचे कि तरफ चलना शुरू कर दिया. डर लग रहा था, दिमाग में था कि हमसे थोडा नीचे साथी ठीक होंगे या नहीं. ... 2 ही मिनट लगे होंगे हम उन तक पहुंच गये. तो सीन कुछ यूँ था कि वेरा बैठी थी और बाकी उसे घेर के खड़े हुए थे. वेरा चिल्ला रही थी कि हम मर जायेंगे. मुझे घर जाना है .... मेरी माँ पागल हो जाएगी... ऐसा लग रहा था कि जैसे उसे कुछ नहीं पता कि वो क्या बोल रही है ...... वो सदमे में थी. सब उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन वो उठ ही नहीं रही थी. मैंने वेरा से पूछा कि “वेरा क्या हुआ” उसने जवाब दिया कि घर जाना है . मैंने कहा “तो चलो उसके लिए तो चलना पड़ेगा”. उसको जबरदस्ती खड़ा किया ... उसे कसके पकड़ा और नीचे चलना शुरू कर दिया. सबसे आगे यामिनी को रखा, फिर मैं और वेरा, और हमारे पीछे शालू और मोहित और उनके पीछे ललित और बाकी और लड़के. बर्फ अभी भी उतनी ही तेज़ी से गिर रही थी बिजली अभी भी कडकड़ा रही थी. डर लगा रहा था कि कहीं बिजली फिर से न गिर जाये.  ट्रेक बहुत ही फिसलन भरा हो गया था. लेकिन जान बचानी थी तो तेज़ी से नीचे जाना था. बात जान कि भी नहीं थी सभी को नार्मल होने के लिए भी नीचे पहुंचना जरुरी था. हमे मुश्किल से 15 मिनट लगे होंगे उस 700 मीटर के ट्रेक को पूरा करने में. किसी तरह आखिर का मोड़ दिखा तो जान में जान आई. लेकिन वही मोड़ सबसे ज्यादा खतरनाक भी था. वो झुकाव भरा मोड़ था, बर्फ गिर रही थी, तो पत्थर भी फिसलन भरे हो गए थे और एक तरफ भयानक गहरी गई जिसका अंत हमें नजर नहीं आ रहा था. ऐसे में उस मोड़ को पार करना  बहुत डरावना था उस पर से किसी के जूते साधारण हो तो डर की मात्र 10 गुना बढ़ जा रही थी. किसी तरह हमने पार किया. ललित पीछे था और उसके साथ एक और लड़का था दुसरे ग्रुप का. वो लड़का पहले से ही बिजली गिरने के सदमे में था और उस मोड़ को देख के उस लड़के के हौसले और भी पस्त हो गए थे. मैंने वो मोड़ पार कर लिया था और उन दोनों का वही खड़े होकर इंतज़ार कर रहा था और उन्हें देख भी रहा था. उस लड़के ने ललित से कहा “ मुझसे नहीं हो पायेगा मुझे यही छोड़ दो” इस पर ललित ने उसका हाथ पकड़ा और  धमका कर कहा “चल जल्दी से खड़ा हो हमे इसे पार करना है” . और फिर बैठ-बैठ कर उन्होंने इस मोड़ को पार किया. पार करके तुंगनाथ मन्दिर की शेल्टर में हम पहुंचे. वहां भीड़ थी. शेल्टर एक ही थी तो सब उसी में घुस आये थे. वेरा की हालत अभी भी ऐसी ही थी. वो रो रही थी, निरंतर बडबडा रही थी. हमारे हाथ ठण्ड के मारे जमे हुए महसूस हो रहे थे. हमने खूब हाथो को रगडा, मुह से फूंक मार-मार कर गरम करने की कोशिश की लेकिन फिर भी गरम नहीं हुए. वहा आग जलाने के लिए भी कुछ साधन नहीं था . तो हमे जल्दी से वहां से निकलना था. जैसे ही हमें लगा कि बर्फ गिरना थोडा कम हुआ है तो हमने नीचे उतरना शुरू कर दिया. थोड़ी ही दूर चले होंगे कि धुप खिल उठी थी. हमारे जहन में डर थोडा कम हुआ लेकिन अभी डर था. मुझे ऐसा इसलिए लगा क्यूंकि हमने आते हुए कोई फोटो या विडियो कुछ नहीं बनाया बस किसी तरह अपने होटल पहुच जाने की जल्दी थी. खैर होटल पहुंच भी गए. कमरे में पहुंचे तो सभी को राहत की सांस आयी.

थोडा थोडा आराम करके फिर खाना खा के हमने सोने की कोशिश की. लेकिन सभी के जहन में वो 30 मिनट अभी भी याद बनके डरा रहे थे. हालांकि हम उसे याद कर कर के हसे भी. लेकिन जान बच गयी थी.

इसके बाद हमे सिख मिली :-

1.        1. कभी भी प्रकृति को हलके में ना लें.

2.        2. अगर ऊँचे पहाड़ों में हो तो 3 बजे तक अपने ठिकाने पर वापिस आ जाने कि            कोशिश करें.

3.         3. और समूह के सारे साथी हमेशा एक साथ रहे.

 

अभी भी हमारे पास 3 दिन बचे थे घुमने के लिए लेकिन उस घटना का डर इतना था कि कोई तैयार नहीं हुआ तो मजबूरन हमें वापसी की गाडी पकडनी पड़ी. अगली सुबह हम अपने घर थे और अपने दोस्तों को तुंगनाथ का अपना अपना किस्सा सुना रहे थे. 

Wednesday, 7 August 2019



हर की दून डायरी:


एक पूरा साल बीत गया था, जब घर से ऑफिस और ऑफिस से घर जाने और शनिवार और रविवार के दिन अपने गांव जाने के अलावा मैंने कुछ नहीं किया। पापा बीमार थे, कोमा में हैं अभी भी, तो बस उसी के बारे में सोचने और करने के अलावा कुछ नहीं किया। थोड़ा चिड़चिड़ापन, थोड़ा उखड़ापन, नीरसता, उदासी जैसा महसूस कर रहा था। इसलिए मन बना लिया था कि 10-12 दिन की छुट्टी लेके कहीं घूमने जाना है। तो दोस्तों के बीच घूमने जाना है का प्लान करना शुरू कर दिया। 3 दोस्तों के समूहों में बात कर के रख ली। सोचा जो भी जायेगा उसी के साथ हो लूंगा। एक ग्रुप के साथ कमिटमेंट भी कर ली। और वो ग्रुप आखिरकार जाने को तैयार हो गया। तारीख तय हुई 01 जून 2019 को देहरादून मिलने की। बाकी दोनों समूह से माफ़ी मांगते हुए 31 मई 2019 की शाम ऑफिस से निकल के  बाद, घर पहुंच के, बैग पैक कर के, मैं और अलोक बस अड्डे पहुँचे और बस में बैठ गए।  बहुत गर्मी थी, इसीलिए जल्दी से पहाड़ पे पहुंच के वहाँ की ठण्डी, साफ़ हवा मैं खुल के सांस लेने का उत्साह भी था।  रात  2 बजे तक हम अपने गंतव्य पहुँच गए और सो गए। हमें सुबह 6 बजे निकलना था। ऐसा हमसे कहा गया था कि हमारी बस 7:30 की थी जबकि बस 8:30 की थी।  हमारे दोस्त हमारे लेट होने की आदत से अनजान नहीं थे। खैर बस पकड़ ली और सीट पे सब बैठ गए। थोड़ी देर, किसी ने किसी से कोई बात नहीं की खाली बेरा और संगी की लड़ाई को छोड़ के, जो उनकी आपसी और रोज होने वाली चीज़ है। खैर उसी दौरान मैं भी अपने ग्रुप के बारे में सोच रहा था जो की बस अभी बस में बैठने के बाद ही इकठ्ठा हुआ है।

ग्रुप का परिचय:
मैं खुद (सनी), 2 बहने वायु और वेरा, वायु 16 साल की है और अभी अभी उसने 10 क्लास फर्स्ट डिवीज़न से पास की है, लोगों को देखती ज्यादा है बात काम करती है और किसी भी तरह की कोई सांस्कृतिक हलचल हो तो उत्साहित हो जाती है और उसमे पार्टिसिपेट भी बड़े उत्साह से करती है। वेरा आज ही 14 साल की हुई है, अभी थोड़ी देर में उसका जन्मदिन भी हम मानाने वाले हैं, वो 9th  क्लास में है और अपनी बहन के उलट खूब गप्पे मारती है। उसे भी मस्ती करना, लोगो को चिढ़ाना, उनपे कॉमेंट पास करना उसका पसंदीदा टाइम पास है। और कोई उसकी बहन को कुछ बोल दे तो बस …………. अपने रौद्र रूप में आ जाती है। फिर हमारे साथ हैं 2 शादीशुदा जोड़ें उनमे से एक है अलोक-टीपू, दूसरा है संगी-बेरा। दोनों जोड़े एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं। जहाँ आलोक टीपू का प्यार 1 KM  दूर से देखा, सुना और सूँघा भी जा सकता है। उसी तरह बेरा-संगी की लड़ाइयां भी देखी, सुनी पर समझी नहीं  जा सकती क्यूँकि उन्हें आपको समझना भी नहीं है, वो उनकी अपनी है और वोही उनके प्यार की निशानी भी है। मुझे तो लगता है कि अगर वो लड़ना छोड़ दे तो शायद हो सकता है कि दोनों के प्यार में कुछ कमी कमी आ जाये।  और जो हमारी 8th सदस्य थी उसका नाम है एंजेल उर्फ़ अंजलि। वो केरल से है, 18 साल की है, टूटी-फूटी हिंदी बोलती है और एक नंबर की मस्तीखोर है और पहली बार ट्रैकिंग पे जा रही है इसीलिए बहुत ही उत्साहित है। तो इस तरह हम 8 लोगों की टीम है जिसमे 2 शादीशुदा जोड़ें , एक बहनों का जोड़ा, और बाकी बचे मैं और एंजेल तो हम किसी के भी साथ अपना जोड़ा या तिकडा तो चौकड़ा बना सकते थे।




       खैर, ग्रुप के बारे में सोचने के बाद जब दिमाग खाली हुआ तो मैं अपनी सीट से उठकर अपनी पीछे वाली सीट जहाँ वायु, वेरा और एंजेल बैठे थे, वहाँ चला गया।  सफर 12 घंटे का था और सफर सुहाना भी बनाना था तो संगी और बेरा के साथ बैठ के उनकी लड़ाई सुनने से बढ़िया था कि पीछे जाके कुछ मस्तीखोरी की जाये।  वायु, वेरा और एंजेल भी बोर हो रहे होंगे इसीलिए उन्होंने मुझ चौथे आदमी के लिए अपनी 3 सीट वाली सीट पे जगह बनाई। और हमारी मस्ती शुरू , कभी हम गाना गा रहे हैं, कभी हम एक्टिंग कर रहे हैं तो कभी नाच रहे हैं, अब सोचिये की दो लोग अपने अपोजिट कानों में एक ही इयरफोन की बड लगाकर गाना सुन रहे हैं।  जबकि वो अपने बगल के कानो में भी बड लगा के सुन सकते हैं।  तो उनको देख के हम लोग खूब हसे। और इसी तरह की मस्तीखोरी रस्तेभर चलती रही।  अब अलोक और संगी भी इस मस्ती में शामिल हो गए तो अलोक ने मिमिक्री कर के दिखाई और अंताक्षरी से भी हमने खूब मजे करे।  इन सब में बस वाले हमारे सहयात्री भी हमें देख कर  मजे ले रहे थे। और जब कभी कोई सुन्दर पहाड़, नदी हमारी बस की खिड़कियों से होकर गुजरता तो हम सब उसे देख के और उत्साहित होते और फोटो खींचते और सबसे ज्यादा उत्साहित एंजेल होती। बस ही में हमने वेरा का जन्मदिन मनाया उसे बधाइयाँ दी।
बहुत सारे पहाड़ों, नदियों, पहाड़ी गांवों, शहरों को पार कर के आखिरकार हमने अपना 8 घंटे का सफर पूरा किया और साँकरी गाँव पहुँच गये, उससे भी आगे अभी 11 km दूर तालुका गाँव  जाना था।  वहाँ जाने के लिए फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से परमिशन लेनी थी सो ले ली गयी और हम टैक्सी बुक कर आधे घण्टे के बेहद खतरनाक रस्ते से हम शाम को 6 बजे तालूका पहुंच गये।


     
      तालुका पहुँच के हमें कमल को ढूंढना था जो वहीँ तालुका का रहने वाला था और गाइड का काम करता था।  जहाँ गाडी रुकी उसी के सामने कमल का ढाबा था जहाँ कमल अपने 3 साल के बच्चे के साथ था। उससे परिचय हुआ और हमने उसे अपना हर की दून का प्लान बताया। वो राजी हो गया और अगले दिन की तैयारी करना शुरू कर दिया। पर अभी पैसों की बात तय नहीं हुई थी  सो वो भी हमने तय कर ली। उसने हमें रहने की जगह दिखाई। जहाँ ३ कमरे थे। वहाँ पहुँच के सब फ्रेश हुए। इसके बाद बेरा की लायी हुई व्हिस्की का नंबर आ चुका था, बच्चो को छोड़कर हम सबने  2-2 पैक लगाये और खाना खा के निढाल होक सो गये।

अगली सुबह जब आँखे खुली तो रजाई हटा के बैठा तो सामने खिड़की से दीखता पहाड़ जिस पर सुबह के सूरज की हलकी किरणे पड़ रही थी, वो पहाड़ बहुत ही सुंदर लग रहा था।  खिड़की से थोड़ा और निचे झाँका तो एक किसान और उसकी बीवी अपने घर के सामने की थोड़ी सी जमीन पे अपने दो बैलों और हल से कुछ बुवाई का काम कर रहे थे। पहाड़ पे बैलो की ऊंचाई थोड़ी छोटी होती है।  मैं कमरे से बाहर निकल के इस खिड़की से झांकते थोड़े से नज़ारे को पूरा कर लेना चाहता था सो में कमरे से बहार निकला और इस पुरे नज़ारे को अपनी आँखों में कैद कर लिया।  मैंने अपनी आँखों में उस पहाड़ पर फैले छितले से पहाड़ी झोपड़ीनुमा लकड़ी से बने घर और उनसे निकलता हुआ धुआँ जो पहाड़ी हरयाली में बादल के जैसा लगता है। ऐसा लगता है जैसे हर घर की छत पे लोगों का अपना एक निजी बादल हो, मैंने अपनी आँखों में अखरोट के पेड़ को, सेब के बाग़ को, पहाड़ी बच्चो को, पहाड़ी जानवरों को कैद कर लिया।







        अब हमें नाश्ता करके अपने रस्ते पर निकल जाना था तो जल्दी से तैयार होके मैं कमल के ढाबे पर पहुँचा और अपने बाकी दोस्तों का इंतज़ार करने लगा।  बाकी सब भी आ गए, हम सब ने नाश्ता किया और अपने रस्ते पे निकल गए अपने खानसामा के साथ। अमुमन गाइड के साथ एक पॉटर और एक कुक होता है।  तो गाइड ने हमें कुक के साथ चलता किया। और अपने आप वो खच्चरों पे सामान लाद के हमसे पहले अगली कैंप साइट पहुँच जाने वाला था और वहाँ जाके टेंट लगा के हम लोगो के खाने का इंतज़ाम करने वाला था। ये उनका रोज का काम है तो वो अपने काम में माहिर और बहुत तेज़ होते हैं। जितनी दुरी हम 1 घंटे में तय करते हैं उतनी वो 15 मिनट में तय कर सकते हैं।  
हम सब के पास अपने अपने ट्रेकिंग बैग थे जिनका वजन औसतन 10 से 15 kg के बीच रहा होगा। सबको अपने बैग उठा के चलना था।  थोड़ा चलने पे ही हमें तालुका से दिख रही टौंस नदी मिल गयी।  अब हमारा पूरा रास्ता उसी के किनारे-किनारे का था। नदी से आती आवाज़ इस बात की गवाह थी कि नदी का बहाव बहुत तेज़ था। कभी घना जंगल तो कभी खुला आसमान, कभी गहरी छाँव तो कभी काटती हुई धुप, कभी सूंदर फूलों की झाड़ियां तो कभी ठन्डे पानी का सोता।  पुरे रस्ते पानी की कोई कामी नहीं हुई। एक दम साफ़ पानी मिनरलों से लदा हुआ, एक दम ठंडा पानी किसी भी मिनिरल वाटर कंपनी को चुनौती पेश करता हुआ बड़ी ही शान से बहता जा रहा था और जाके नदी में मिल जाता था, जो फिर पहाड़ से निचे मैदानों में प्रवेश करता है और धीरे धीरे नाले की शक्ल अख्तियार कर लेता है जिसके पानी को बड़ी-बड़ी कम्पनिया साफ़ कर, बोतलों में बंद कर के हमें बेचती  है। इससे एक बात तो समझ आती है। नदी को नाला ये ही बड़ी कम्पनियाँ बनाती हैं और फिर नाले के पानी को साफ़ कर के बेचती भी बड़ी कंपनियां ही हैं, दोनों जगह फायदा।
अपना ट्रेक पूरा करके आते लोग, उनके साथ आते वहीँ के स्थानीय गाइड, पॉटर, कुक और हाँ ख़च्चरो को कैसे भूल जाये सबसे ज्यादा मेहनत तो बेचारे वोही करते है, 60-70 किलो वजन लाद के ले जाना और लाद के वापिस लेके आना। उनसे बढ़िया ट्रैकर कौन हो सकता है।  एक जगह का दृश्य याद आया, पूरे रस्ते पानी के खूब सौते थे तो एक जगह पे मैंने देखा कि इंसान और खच्चर दोनों एक साथ सौते के पानी का स्वाद ले रहे थे।  मैंने उनकी फोटो भी ली।  खैर ये किसी के लिए चिढ़ने की और unhigenic बात हो सकती है, पर चाहे इंसान हो या खच्चर या किसी और भी जानवर के लिए पहाड़ पे तो मज़बूरी है जहाँ पानी पीने का एकमात्र स्रोत वोही पहाड़ो से बहता हुआ सौता ही है। तो कोई कहाँ जाके पानी पिए। वहाँ मैंने सीखा प्रकृति कभी भेदभाव नहीं करती अपनी सन्तानो के साथ।  ये तो हम इंसान है जो करते हैं।



       खैर ऐसे चलते हुये, गाना गाते हुए, नाचते हुए, खाते- पीते हुए, नदिया के मुड़ते, बहते, उखड़ते, और उफनते अंदाज़ की खूबसूरती की बाते करते हुए, दूर नजर आते पहाड़ और उन पर जमी बर्फ पर पहुंचने के सपने देखते हुए हम अपने पहले पड़ाव पहुंचे। पहला पड़ाव था ओसला गाँव के
सामने, ओसला गाँव के ही किसी किसान का खेत, जिसे उसने किराये पे चढ़ा रखा था।  ताकि टूरिस्ट लोग अपना टेन्ट गाड़ सके और प्रकृति का आनंद ले सकें।  खैर खेती करते हुए हाड-तोड़ मेहनत करके पैदा हुई फसल का दाम ये टूरिस्ट लोग एक ही बार में चूका देते हैं।  तो फायदे का सौदा हुआ खेत किराये पे देना। पर साथ ही ये ही टूरिस्ट लोग उस पहाड़ को काट के सपाट किये हुए खेत में अपनी गंदगी भी छोड़ जाते हैं।जो कि आज के समय की पहाड़ की सबसे बड़ी दिक्कतों में से एक है। हमारा टेंट भी वही लगा, कुल 3 टेन्ट लगे एक किचन टेंट और 2 स्लीपिंग टेंट।  स्लीपिंग टेन्ट में सिर्फ 6 लोग ही सो सकते थे तो मैं और बेरा किचन टेंट में अपने गाइड, कुक और पोटर के साथ
सोये।  पर सोने से पहले तो हमें आस-पास घूम भी लेना था।  जहाँ हमें सीढ़ीदार पहाड़ी खेत में खड़ी गेहूँ की फसल देखनी थी।  पानी के सौते से चलती हुई एक अनाज पीसने की चक्की देखनी थी, (हाइड्रोलिक पॉवर का एक देसी नमूना )। फोटो खींचने और खिंचाने थे, और हाँ, एंजेल के साथ बनाया हुआ प्लान जिसमे आलोक को पेड़ से बांध के उसकी बीवी टीपू से डांस कराना था, तो अलोक को बांधा भी गया , टीपू से डांस भी करवाया बसंती स्टाइल में।  और फिर हम सबने भी डांस किया।  पहाड़ी गेहूँ के खेतो के बीच, एक दम साफ़ हवा और खुले आसमान के निचे नाचना, गाना, हसना और हसाना  …………..  उफ़ क्या अनुभव था। उसके बाद हमने खाना खाया और पास ही एक दूसरे ग्रुप के लड़कों के पास जाने लगे जिनसे अभी हाल ही में दोस्ती हुई थी। वो लोग bonefire कर रहे थे।  हम वहाँ गए और गानो का दौर फिर से शुरू हो गया। अँधेरी रात, खुला आसमान, साफ़ साफ़ दीखते चाँद और तारे जो की दिल्ली जैसे शहरों में अपवाद ही नजर आते हैं, बगल से बहती हुई रूपिन नदी तो बस एक ही गाना ध्यान आ रहा था। …………..ये रातें ये मौसम नदी का किनारा ये चंचल हवा…………….. पार्टी ख़तम हुई और हम सब अपने अपने टेन्ट में जाकर सो गये।  अगली सुबह जल्दी उठना था पर खराब आदत  …………….  उठे लेट ही। फ्रेश हुए, नाश्ता किया, बैग पैक किये और चल दिए अगले पड़ाव की तरफ पैदल पैदल।




         अगला पड़ाव था कलकती धार जोकि लगभग 8 km दूर था। जाना पैदल ही था।  हम चले जा रहे थे कहीं रूक के आराम करते तो कहीं पानी पीते।  रास्ते में पहाड़ी औरते अपने वजन से भी ज्यादा लकड़ी के बड़े बड़े फट्टे उठा के लेके जाती हुई मिलती। तो उन्हें देख के अपनी शारीरिक
ताकत का गुरूर टूट जाता।  क्या गजब के मेहनती और बहादुर लोग होते है पहाड़ी।  शांत, खुशमिज़ाज़, मिलनसार, बहादुर इतने की पहाड़ उनके सामने बौने नजर आते। खतरनाक से खतरनाक पहाड़ो को बहुत आसानी से पार कर जाते है ये। रस्ते में भेड़ो को चराने वाले मिलते और उनसे पूछते की कहाँ जा रहे हो, या कहाँ से आ रहे हो तो वो दूर कोई पहाड़ी चोटी दिखते जिसपे जाने के बारे में सोचना भी हमारे लिए मुमकिन न था और कहते की वहां से आ रहे हैं ऐसी ही दूसरी खतरनाक चढ़ाई वाली चोटी दिखते और कहते की वहाँ जा रहे हैं। साधन के नाम पे उनके पास फटे हुए पलास्टिक के जूते होते सर्दी से बचने के लिए एक फटा सा कम्बल होता और सुरक्षा के लिए उनके पास होते पालतू कुत्ते जिनके गले में काँटेदार फंदा होता।  ये फंदा इसलिए लगाते है कि जब पहाड़ी लेपर्ड उनपे हमला करे तो वो खुद ही घायल हो जाये क्यूँकि वो हमेशा गर्दन पे ही हमला करते हैं।  इन्ही सब सुंदर दृश्यों को देखते और सोचते विचरते हम
आखिर-कार कलकती धार पहुंच ही गए वो एक बहुत बड़ा पहाड़ी बगियाल या पहाड़ी घास का मैदान था जो की पूरा का पूरा टूरिस्टों के टेंटो से भरा हुआ था।  हमारा भी टेन्ट वहीँ लगा हुआ था हम करीब 3 बजे तक वहाँ पहुंच गये।  हमारा खाना तैयार था हम सबने खाना खाया, और जिनको आराम करना था वो आराम करने टेंट में घुस गए।  पर मेरा मन तो पास ही एक छोटे से पहाड़ को फ़तेह करने का था।  तो मैंने पहले टीपू और वेरा को पटाया और हमने उसे चढ़ना शुरू कर दिया चढ़ाई एक दम सीधी थी, फिसलन भरी थी।  थोड़ा चढ़ने पर ओले पड़ने शुरू हो गये बचने के कुछ था नहीं तो वापिस उतरना पड़ा। उतर के मैंने अलोक को पटाया और हम रैनकोट पहन के चढ़ना फिर से शुरू कर दिया। ओले अभी भी पड रहे थे, फिसलन थी, ऐसे में हमारे quachua के जूते काम आये उनकी grip अच्छी थी और हम पहाड़ चढ़ गए।  चढ़ने पर एक बहुत बड़ा, सपाट घास का मैदान हमारे सामने था और उसके पीछे थे कुछ चीड़ के पेड़ और उनके पीछे थे पहाड़ और पहाड़ से गिर रहा था एक झरना और झरना जहाँ से गिर रहा थे वहां एक दम सफ़ेद बर्फ जमी हुई थी और उसके पीछे थे घने काले और सफ़ेद बदल जो हमारे ऊपर बर्फ के छोटे छोटे गोले बरसा रहे थे।  ओले और तेज़ी से गिरना शुरू हो गए तो हमने भाग के चीड़ के पेड़ों के निचे छुपकर खुद को और उधार लाये हुए कैमरे को बचाया।  ओले गिरना बंद हुए तो हमने पूरा मैदान तसल्ली से देखा। फोटो खींचे , दूर दूसरे पहाड़ों पे चरती हुई भेड़ें और गायें कितनी खूबसूरत लग रही थी। पर नीचे जो मैदान था उपसे एक लाइन से जगह-जगह टेन्ट लगे हुए थे।   90 फीसद टेन्ट पे quchua लिखा हुआ था।  ये एक विदेशी कंपनी है और हाईकिंग के प्रोडक्ट तैयार करती है।फिलहाल पहाड़ पे बस यही नाम दिखाई पड़ता है।  चाहे जूते हो, कपडे हो, टेंट हो या कुछ भी हैकिंग से सम्बंधित हो तो बस quchua । पहाड़ के रहने वालो के नसीब में वोही प्लास्टिक का फटा हुआ जूता ही होता है quchua तो सिर्फ टूरिस्टो के पास होता है।  महंगा बहुत है न इसलिए। खैर ये सब अपनी आँखों और कैमरे में कैद करते हुए हम निचे उतरना शुरू किये थोड़ी देर में निचे उतरे तो भीगने, और थकान की वजह से बुखार जैसा महसूस हुआ।  तो खाना खाया , दवाई ली और सो गए, अगले दिन जल्दी उठने का वादा अपने गाइड से करते हुए।



       सुबह उठे, फ्रेश हुए और हर बार की तरह मैं और बेरा सबसे पहले उठ गये और बाकियो के उठने का इंतज़ार करने लगे।  उठ जाने के बाद लड़कियों के तैयार होने का भी इंतज़ार करना था क्यूंकि उनको थोड़ा बहुत मेकअप भी करना होता था।  खैर, मैं और बेरा कुढ़ते हुए उनका इंतज़ार करने लगे ।  सब तैयार हो गए, नाश्ता हो गया और हम अपने आखिरी मंजिल की तरफ रवाना हुए।  मंजिल पे पहुँच के हमें वापिस यही आना था आज ही।  कुल मिला के 16 km  का सफर था आज का, 8 km जाना और 8 km आना।  1 km ही चले थे  कि एंजेल की तबियत ख़राब हो गयी उसे, उलटी आना शुरू हो गयी।  उसने कुछ खाया नहीं था सुबह नाश्ते में शायद इसीलिए उसकी तबियत खराब हुई।  चाय भी नी पी।  तो अब उसे अपने साथ आराम-आराम से लेके जाना था।
मैंने और अलोक ने उसे लेके जाने की जिम्मेदारी ली और गाना गाते हुए, कहानी सुनाते हुए उसे प्रेरित करते हुए हम उसे ले जाने लगे, 4 km बाद गिरते हुए झरने के किनारे एक चाय वाले की दूकान थी तो वहाँ चाय और नाश्ता किया गया तो एंजेल की तबियत सुधरी।  पहाड़ों में बारिश की वजह से हर बार रास्ता बदल जाता है, क्योंकी पुराना रास्ता ढह जाता है बरसात की वजह से, कई जगह हमें बड़े ही खरनाक रास्तो से जाना पड़ा।  फिर जाके आयी वो जगह जिसे देख के हम सब गदगद हो गए।  एक सौते पे बहुत बर्फ जमी हुई थी , हमारे रस्ते में पहली बार बर्फ मिली और एंजेल ने तो पहली बार पहाड़ी बर्फ को देखा।  हम सबने खूब फोटो लिए और बर्फ में खूब खेला। ऐसे ही खेलते हुए, गप्पे मरते हुए, मजाक करते हुए हम सब अपने आखिरी पड़ाव और हमारी मंजिल हर की दून घाटी पहुंच गए।  क्या गजब की सुंदर जगह है वो , कलकल करके बहती हुई रूपिन नदी जिसके किनारे बैठ के हमने खाना खाया, और फिर उसी नदी में मुँह डाल के जानवरो की तरह पानी पिया। 

    जब हम वहाँ पहुँचे तो दोपहर का 1 बजा था, बारिश अमूमन 2 बजे के बाद होती है पहाड़ो पे तो मौसम एक दम साफ़ था, आसमान एकदम आसमानी रंग से लबरेज था, कहीं कहीं सफ़ेद बादल भी दिख रहे थे हमारे बगल से रूपिन नदी बह रही थी वो भी एकदम साफ़ थी। हम लगभग 3500 mtr ऊंचाई पे थे, पेड़ भी बहुत ज्यादा नहीं होते उतनी ऊंचाई पे तो कहीं कहीं चीड़ के पेड़ नजर आ रहे थे।  हर की दून घाटी 3 तरफ से पहाड़ो से घिरी हुई है एक तरफ स्वर्गारोहिणी पर्वत उसके बगल में ब्लैक पीक, और ऐसे ही पहाड़ो की झड़ी सी लगी है वहाँ 3 दिशाओं में।  हर चोटी बर्फ की सफ़ेद चादर ओढ़े हुए थी वो इतने सूंदर लग रहे थे कि शायद बादल को उनपे प्यार आ गया हो और इसीलिए वो बार-बार अलग-अलग चोटी को चूमने झुक जाता हो, कभी इस चोटी तो कभी उस चोटी।
सब कुछ इतना साफ़, और निर्मल था इसीलिए मेरे पिछले कई वाक्य में साफ़ शब्द बार बार आया है।  उस घाटी में घास के भी बड़े-बड़े मैदान थे जहाँ ओसला गांव के जानवर चार रहे थे।  ओसला गांव वहाँ से लगभग 18km दूर है और वहाँ से लोग अपने जानवर चराने इतनी दूर तक आ जाते हैं।  वहाँ हमने लगभग 2 घंटे बिताये।  और भी समय गुजरना चाहते थे।  अद्भुद शान्ति थी वहाँ।  कोई हॉर्न की आवाज नहीं, कोई फेसबुक कोई वाट्सअप वहाँ काम नहीं करता, बिजली नहीं है।  वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे इंसानी दुनिया में सुविधा कहते हैं।  वहां अगर पानी पीना है तो नदी में
अपनी हथेलिया जोड़ के पानी निकालो और पी लो।  बिमारी तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकती, इतना साफ़ पानी है।  किसी एयर purifire की जरूरत नहीं तो हेमा मालिनी की भी वहां जरुरत ख़त्म।  खाना हो तो प्रकृति माँ ने जो भी दिया है उसी से काम चलाना होगा।  गारंटी है की पोषक
तत्व भरपूर मात्रा में देती है प्रकृति वो भी बिना किसी दवा और छिड़काव के। सोचता हूँ की सब कुछ ऐसा ही हो जाये तो कितना सूंदर होगा।


खैर, वहां से वापिस भी आना ही था जोकि सच्चाई थी।  तो वापिस लौटना शुरू किया।  पहले कलकती धार पहुँचे  वहाँ ठहरे फिर अगली सुबह ओसला गांव होते हुए जहाँ हमने दुर्योधन का मंदिर
देखा और ये भी देखा की यहाँ डाक्टर की कोई सुविधा नहीं है, है भी तो 50-60 km दूर जाना पड़ेगा वो भी पैदल रास्तो से   इसीलिए जब भी कोई टूरिस्ट गांव पहुँचता है तो गांव वाले दवाइयां मांगते है, बुखार की, सर दर्द की, पेट दर्द की और ऐसी ही छोटी बीमारियों की।  हमने भी वहां दवाइयां दी।
और फिर सुपिन नदी में डुबकी लगाते हुए हम शाम को तालुका गांव पहुंचे। मैंने रस्ते में ही अपने कुक से गांव की लोकल जो लोग अपने निजी इस्तेमाल के लिए दारु बनाते हैं उसे खरीद के लाने की बात कर ली।  शाम को हमने लोकल दारु पी और खाना खाया और कल सुबह अपने घर वापिस जाने के लिए सो गए।