Wednesday, 7 August 2019



हर की दून डायरी:


एक पूरा साल बीत गया था, जब घर से ऑफिस और ऑफिस से घर जाने और शनिवार और रविवार के दिन अपने गांव जाने के अलावा मैंने कुछ नहीं किया। पापा बीमार थे, कोमा में हैं अभी भी, तो बस उसी के बारे में सोचने और करने के अलावा कुछ नहीं किया। थोड़ा चिड़चिड़ापन, थोड़ा उखड़ापन, नीरसता, उदासी जैसा महसूस कर रहा था। इसलिए मन बना लिया था कि 10-12 दिन की छुट्टी लेके कहीं घूमने जाना है। तो दोस्तों के बीच घूमने जाना है का प्लान करना शुरू कर दिया। 3 दोस्तों के समूहों में बात कर के रख ली। सोचा जो भी जायेगा उसी के साथ हो लूंगा। एक ग्रुप के साथ कमिटमेंट भी कर ली। और वो ग्रुप आखिरकार जाने को तैयार हो गया। तारीख तय हुई 01 जून 2019 को देहरादून मिलने की। बाकी दोनों समूह से माफ़ी मांगते हुए 31 मई 2019 की शाम ऑफिस से निकल के  बाद, घर पहुंच के, बैग पैक कर के, मैं और अलोक बस अड्डे पहुँचे और बस में बैठ गए।  बहुत गर्मी थी, इसीलिए जल्दी से पहाड़ पे पहुंच के वहाँ की ठण्डी, साफ़ हवा मैं खुल के सांस लेने का उत्साह भी था।  रात  2 बजे तक हम अपने गंतव्य पहुँच गए और सो गए। हमें सुबह 6 बजे निकलना था। ऐसा हमसे कहा गया था कि हमारी बस 7:30 की थी जबकि बस 8:30 की थी।  हमारे दोस्त हमारे लेट होने की आदत से अनजान नहीं थे। खैर बस पकड़ ली और सीट पे सब बैठ गए। थोड़ी देर, किसी ने किसी से कोई बात नहीं की खाली बेरा और संगी की लड़ाई को छोड़ के, जो उनकी आपसी और रोज होने वाली चीज़ है। खैर उसी दौरान मैं भी अपने ग्रुप के बारे में सोच रहा था जो की बस अभी बस में बैठने के बाद ही इकठ्ठा हुआ है।

ग्रुप का परिचय:
मैं खुद (सनी), 2 बहने वायु और वेरा, वायु 16 साल की है और अभी अभी उसने 10 क्लास फर्स्ट डिवीज़न से पास की है, लोगों को देखती ज्यादा है बात काम करती है और किसी भी तरह की कोई सांस्कृतिक हलचल हो तो उत्साहित हो जाती है और उसमे पार्टिसिपेट भी बड़े उत्साह से करती है। वेरा आज ही 14 साल की हुई है, अभी थोड़ी देर में उसका जन्मदिन भी हम मानाने वाले हैं, वो 9th  क्लास में है और अपनी बहन के उलट खूब गप्पे मारती है। उसे भी मस्ती करना, लोगो को चिढ़ाना, उनपे कॉमेंट पास करना उसका पसंदीदा टाइम पास है। और कोई उसकी बहन को कुछ बोल दे तो बस …………. अपने रौद्र रूप में आ जाती है। फिर हमारे साथ हैं 2 शादीशुदा जोड़ें उनमे से एक है अलोक-टीपू, दूसरा है संगी-बेरा। दोनों जोड़े एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं। जहाँ आलोक टीपू का प्यार 1 KM  दूर से देखा, सुना और सूँघा भी जा सकता है। उसी तरह बेरा-संगी की लड़ाइयां भी देखी, सुनी पर समझी नहीं  जा सकती क्यूँकि उन्हें आपको समझना भी नहीं है, वो उनकी अपनी है और वोही उनके प्यार की निशानी भी है। मुझे तो लगता है कि अगर वो लड़ना छोड़ दे तो शायद हो सकता है कि दोनों के प्यार में कुछ कमी कमी आ जाये।  और जो हमारी 8th सदस्य थी उसका नाम है एंजेल उर्फ़ अंजलि। वो केरल से है, 18 साल की है, टूटी-फूटी हिंदी बोलती है और एक नंबर की मस्तीखोर है और पहली बार ट्रैकिंग पे जा रही है इसीलिए बहुत ही उत्साहित है। तो इस तरह हम 8 लोगों की टीम है जिसमे 2 शादीशुदा जोड़ें , एक बहनों का जोड़ा, और बाकी बचे मैं और एंजेल तो हम किसी के भी साथ अपना जोड़ा या तिकडा तो चौकड़ा बना सकते थे।




       खैर, ग्रुप के बारे में सोचने के बाद जब दिमाग खाली हुआ तो मैं अपनी सीट से उठकर अपनी पीछे वाली सीट जहाँ वायु, वेरा और एंजेल बैठे थे, वहाँ चला गया।  सफर 12 घंटे का था और सफर सुहाना भी बनाना था तो संगी और बेरा के साथ बैठ के उनकी लड़ाई सुनने से बढ़िया था कि पीछे जाके कुछ मस्तीखोरी की जाये।  वायु, वेरा और एंजेल भी बोर हो रहे होंगे इसीलिए उन्होंने मुझ चौथे आदमी के लिए अपनी 3 सीट वाली सीट पे जगह बनाई। और हमारी मस्ती शुरू , कभी हम गाना गा रहे हैं, कभी हम एक्टिंग कर रहे हैं तो कभी नाच रहे हैं, अब सोचिये की दो लोग अपने अपोजिट कानों में एक ही इयरफोन की बड लगाकर गाना सुन रहे हैं।  जबकि वो अपने बगल के कानो में भी बड लगा के सुन सकते हैं।  तो उनको देख के हम लोग खूब हसे। और इसी तरह की मस्तीखोरी रस्तेभर चलती रही।  अब अलोक और संगी भी इस मस्ती में शामिल हो गए तो अलोक ने मिमिक्री कर के दिखाई और अंताक्षरी से भी हमने खूब मजे करे।  इन सब में बस वाले हमारे सहयात्री भी हमें देख कर  मजे ले रहे थे। और जब कभी कोई सुन्दर पहाड़, नदी हमारी बस की खिड़कियों से होकर गुजरता तो हम सब उसे देख के और उत्साहित होते और फोटो खींचते और सबसे ज्यादा उत्साहित एंजेल होती। बस ही में हमने वेरा का जन्मदिन मनाया उसे बधाइयाँ दी।
बहुत सारे पहाड़ों, नदियों, पहाड़ी गांवों, शहरों को पार कर के आखिरकार हमने अपना 8 घंटे का सफर पूरा किया और साँकरी गाँव पहुँच गये, उससे भी आगे अभी 11 km दूर तालुका गाँव  जाना था।  वहाँ जाने के लिए फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से परमिशन लेनी थी सो ले ली गयी और हम टैक्सी बुक कर आधे घण्टे के बेहद खतरनाक रस्ते से हम शाम को 6 बजे तालूका पहुंच गये।


     
      तालुका पहुँच के हमें कमल को ढूंढना था जो वहीँ तालुका का रहने वाला था और गाइड का काम करता था।  जहाँ गाडी रुकी उसी के सामने कमल का ढाबा था जहाँ कमल अपने 3 साल के बच्चे के साथ था। उससे परिचय हुआ और हमने उसे अपना हर की दून का प्लान बताया। वो राजी हो गया और अगले दिन की तैयारी करना शुरू कर दिया। पर अभी पैसों की बात तय नहीं हुई थी  सो वो भी हमने तय कर ली। उसने हमें रहने की जगह दिखाई। जहाँ ३ कमरे थे। वहाँ पहुँच के सब फ्रेश हुए। इसके बाद बेरा की लायी हुई व्हिस्की का नंबर आ चुका था, बच्चो को छोड़कर हम सबने  2-2 पैक लगाये और खाना खा के निढाल होक सो गये।

अगली सुबह जब आँखे खुली तो रजाई हटा के बैठा तो सामने खिड़की से दीखता पहाड़ जिस पर सुबह के सूरज की हलकी किरणे पड़ रही थी, वो पहाड़ बहुत ही सुंदर लग रहा था।  खिड़की से थोड़ा और निचे झाँका तो एक किसान और उसकी बीवी अपने घर के सामने की थोड़ी सी जमीन पे अपने दो बैलों और हल से कुछ बुवाई का काम कर रहे थे। पहाड़ पे बैलो की ऊंचाई थोड़ी छोटी होती है।  मैं कमरे से बाहर निकल के इस खिड़की से झांकते थोड़े से नज़ारे को पूरा कर लेना चाहता था सो में कमरे से बहार निकला और इस पुरे नज़ारे को अपनी आँखों में कैद कर लिया।  मैंने अपनी आँखों में उस पहाड़ पर फैले छितले से पहाड़ी झोपड़ीनुमा लकड़ी से बने घर और उनसे निकलता हुआ धुआँ जो पहाड़ी हरयाली में बादल के जैसा लगता है। ऐसा लगता है जैसे हर घर की छत पे लोगों का अपना एक निजी बादल हो, मैंने अपनी आँखों में अखरोट के पेड़ को, सेब के बाग़ को, पहाड़ी बच्चो को, पहाड़ी जानवरों को कैद कर लिया।







        अब हमें नाश्ता करके अपने रस्ते पर निकल जाना था तो जल्दी से तैयार होके मैं कमल के ढाबे पर पहुँचा और अपने बाकी दोस्तों का इंतज़ार करने लगा।  बाकी सब भी आ गए, हम सब ने नाश्ता किया और अपने रस्ते पे निकल गए अपने खानसामा के साथ। अमुमन गाइड के साथ एक पॉटर और एक कुक होता है।  तो गाइड ने हमें कुक के साथ चलता किया। और अपने आप वो खच्चरों पे सामान लाद के हमसे पहले अगली कैंप साइट पहुँच जाने वाला था और वहाँ जाके टेंट लगा के हम लोगो के खाने का इंतज़ाम करने वाला था। ये उनका रोज का काम है तो वो अपने काम में माहिर और बहुत तेज़ होते हैं। जितनी दुरी हम 1 घंटे में तय करते हैं उतनी वो 15 मिनट में तय कर सकते हैं।  
हम सब के पास अपने अपने ट्रेकिंग बैग थे जिनका वजन औसतन 10 से 15 kg के बीच रहा होगा। सबको अपने बैग उठा के चलना था।  थोड़ा चलने पे ही हमें तालुका से दिख रही टौंस नदी मिल गयी।  अब हमारा पूरा रास्ता उसी के किनारे-किनारे का था। नदी से आती आवाज़ इस बात की गवाह थी कि नदी का बहाव बहुत तेज़ था। कभी घना जंगल तो कभी खुला आसमान, कभी गहरी छाँव तो कभी काटती हुई धुप, कभी सूंदर फूलों की झाड़ियां तो कभी ठन्डे पानी का सोता।  पुरे रस्ते पानी की कोई कामी नहीं हुई। एक दम साफ़ पानी मिनरलों से लदा हुआ, एक दम ठंडा पानी किसी भी मिनिरल वाटर कंपनी को चुनौती पेश करता हुआ बड़ी ही शान से बहता जा रहा था और जाके नदी में मिल जाता था, जो फिर पहाड़ से निचे मैदानों में प्रवेश करता है और धीरे धीरे नाले की शक्ल अख्तियार कर लेता है जिसके पानी को बड़ी-बड़ी कम्पनिया साफ़ कर, बोतलों में बंद कर के हमें बेचती  है। इससे एक बात तो समझ आती है। नदी को नाला ये ही बड़ी कम्पनियाँ बनाती हैं और फिर नाले के पानी को साफ़ कर के बेचती भी बड़ी कंपनियां ही हैं, दोनों जगह फायदा।
अपना ट्रेक पूरा करके आते लोग, उनके साथ आते वहीँ के स्थानीय गाइड, पॉटर, कुक और हाँ ख़च्चरो को कैसे भूल जाये सबसे ज्यादा मेहनत तो बेचारे वोही करते है, 60-70 किलो वजन लाद के ले जाना और लाद के वापिस लेके आना। उनसे बढ़िया ट्रैकर कौन हो सकता है।  एक जगह का दृश्य याद आया, पूरे रस्ते पानी के खूब सौते थे तो एक जगह पे मैंने देखा कि इंसान और खच्चर दोनों एक साथ सौते के पानी का स्वाद ले रहे थे।  मैंने उनकी फोटो भी ली।  खैर ये किसी के लिए चिढ़ने की और unhigenic बात हो सकती है, पर चाहे इंसान हो या खच्चर या किसी और भी जानवर के लिए पहाड़ पे तो मज़बूरी है जहाँ पानी पीने का एकमात्र स्रोत वोही पहाड़ो से बहता हुआ सौता ही है। तो कोई कहाँ जाके पानी पिए। वहाँ मैंने सीखा प्रकृति कभी भेदभाव नहीं करती अपनी सन्तानो के साथ।  ये तो हम इंसान है जो करते हैं।



       खैर ऐसे चलते हुये, गाना गाते हुए, नाचते हुए, खाते- पीते हुए, नदिया के मुड़ते, बहते, उखड़ते, और उफनते अंदाज़ की खूबसूरती की बाते करते हुए, दूर नजर आते पहाड़ और उन पर जमी बर्फ पर पहुंचने के सपने देखते हुए हम अपने पहले पड़ाव पहुंचे। पहला पड़ाव था ओसला गाँव के
सामने, ओसला गाँव के ही किसी किसान का खेत, जिसे उसने किराये पे चढ़ा रखा था।  ताकि टूरिस्ट लोग अपना टेन्ट गाड़ सके और प्रकृति का आनंद ले सकें।  खैर खेती करते हुए हाड-तोड़ मेहनत करके पैदा हुई फसल का दाम ये टूरिस्ट लोग एक ही बार में चूका देते हैं।  तो फायदे का सौदा हुआ खेत किराये पे देना। पर साथ ही ये ही टूरिस्ट लोग उस पहाड़ को काट के सपाट किये हुए खेत में अपनी गंदगी भी छोड़ जाते हैं।जो कि आज के समय की पहाड़ की सबसे बड़ी दिक्कतों में से एक है। हमारा टेंट भी वही लगा, कुल 3 टेन्ट लगे एक किचन टेंट और 2 स्लीपिंग टेंट।  स्लीपिंग टेन्ट में सिर्फ 6 लोग ही सो सकते थे तो मैं और बेरा किचन टेंट में अपने गाइड, कुक और पोटर के साथ
सोये।  पर सोने से पहले तो हमें आस-पास घूम भी लेना था।  जहाँ हमें सीढ़ीदार पहाड़ी खेत में खड़ी गेहूँ की फसल देखनी थी।  पानी के सौते से चलती हुई एक अनाज पीसने की चक्की देखनी थी, (हाइड्रोलिक पॉवर का एक देसी नमूना )। फोटो खींचने और खिंचाने थे, और हाँ, एंजेल के साथ बनाया हुआ प्लान जिसमे आलोक को पेड़ से बांध के उसकी बीवी टीपू से डांस कराना था, तो अलोक को बांधा भी गया , टीपू से डांस भी करवाया बसंती स्टाइल में।  और फिर हम सबने भी डांस किया।  पहाड़ी गेहूँ के खेतो के बीच, एक दम साफ़ हवा और खुले आसमान के निचे नाचना, गाना, हसना और हसाना  …………..  उफ़ क्या अनुभव था। उसके बाद हमने खाना खाया और पास ही एक दूसरे ग्रुप के लड़कों के पास जाने लगे जिनसे अभी हाल ही में दोस्ती हुई थी। वो लोग bonefire कर रहे थे।  हम वहाँ गए और गानो का दौर फिर से शुरू हो गया। अँधेरी रात, खुला आसमान, साफ़ साफ़ दीखते चाँद और तारे जो की दिल्ली जैसे शहरों में अपवाद ही नजर आते हैं, बगल से बहती हुई रूपिन नदी तो बस एक ही गाना ध्यान आ रहा था। …………..ये रातें ये मौसम नदी का किनारा ये चंचल हवा…………….. पार्टी ख़तम हुई और हम सब अपने अपने टेन्ट में जाकर सो गये।  अगली सुबह जल्दी उठना था पर खराब आदत  …………….  उठे लेट ही। फ्रेश हुए, नाश्ता किया, बैग पैक किये और चल दिए अगले पड़ाव की तरफ पैदल पैदल।




         अगला पड़ाव था कलकती धार जोकि लगभग 8 km दूर था। जाना पैदल ही था।  हम चले जा रहे थे कहीं रूक के आराम करते तो कहीं पानी पीते।  रास्ते में पहाड़ी औरते अपने वजन से भी ज्यादा लकड़ी के बड़े बड़े फट्टे उठा के लेके जाती हुई मिलती। तो उन्हें देख के अपनी शारीरिक
ताकत का गुरूर टूट जाता।  क्या गजब के मेहनती और बहादुर लोग होते है पहाड़ी।  शांत, खुशमिज़ाज़, मिलनसार, बहादुर इतने की पहाड़ उनके सामने बौने नजर आते। खतरनाक से खतरनाक पहाड़ो को बहुत आसानी से पार कर जाते है ये। रस्ते में भेड़ो को चराने वाले मिलते और उनसे पूछते की कहाँ जा रहे हो, या कहाँ से आ रहे हो तो वो दूर कोई पहाड़ी चोटी दिखते जिसपे जाने के बारे में सोचना भी हमारे लिए मुमकिन न था और कहते की वहां से आ रहे हैं ऐसी ही दूसरी खतरनाक चढ़ाई वाली चोटी दिखते और कहते की वहाँ जा रहे हैं। साधन के नाम पे उनके पास फटे हुए पलास्टिक के जूते होते सर्दी से बचने के लिए एक फटा सा कम्बल होता और सुरक्षा के लिए उनके पास होते पालतू कुत्ते जिनके गले में काँटेदार फंदा होता।  ये फंदा इसलिए लगाते है कि जब पहाड़ी लेपर्ड उनपे हमला करे तो वो खुद ही घायल हो जाये क्यूँकि वो हमेशा गर्दन पे ही हमला करते हैं।  इन्ही सब सुंदर दृश्यों को देखते और सोचते विचरते हम
आखिर-कार कलकती धार पहुंच ही गए वो एक बहुत बड़ा पहाड़ी बगियाल या पहाड़ी घास का मैदान था जो की पूरा का पूरा टूरिस्टों के टेंटो से भरा हुआ था।  हमारा भी टेन्ट वहीँ लगा हुआ था हम करीब 3 बजे तक वहाँ पहुंच गये।  हमारा खाना तैयार था हम सबने खाना खाया, और जिनको आराम करना था वो आराम करने टेंट में घुस गए।  पर मेरा मन तो पास ही एक छोटे से पहाड़ को फ़तेह करने का था।  तो मैंने पहले टीपू और वेरा को पटाया और हमने उसे चढ़ना शुरू कर दिया चढ़ाई एक दम सीधी थी, फिसलन भरी थी।  थोड़ा चढ़ने पर ओले पड़ने शुरू हो गये बचने के कुछ था नहीं तो वापिस उतरना पड़ा। उतर के मैंने अलोक को पटाया और हम रैनकोट पहन के चढ़ना फिर से शुरू कर दिया। ओले अभी भी पड रहे थे, फिसलन थी, ऐसे में हमारे quachua के जूते काम आये उनकी grip अच्छी थी और हम पहाड़ चढ़ गए।  चढ़ने पर एक बहुत बड़ा, सपाट घास का मैदान हमारे सामने था और उसके पीछे थे कुछ चीड़ के पेड़ और उनके पीछे थे पहाड़ और पहाड़ से गिर रहा था एक झरना और झरना जहाँ से गिर रहा थे वहां एक दम सफ़ेद बर्फ जमी हुई थी और उसके पीछे थे घने काले और सफ़ेद बदल जो हमारे ऊपर बर्फ के छोटे छोटे गोले बरसा रहे थे।  ओले और तेज़ी से गिरना शुरू हो गए तो हमने भाग के चीड़ के पेड़ों के निचे छुपकर खुद को और उधार लाये हुए कैमरे को बचाया।  ओले गिरना बंद हुए तो हमने पूरा मैदान तसल्ली से देखा। फोटो खींचे , दूर दूसरे पहाड़ों पे चरती हुई भेड़ें और गायें कितनी खूबसूरत लग रही थी। पर नीचे जो मैदान था उपसे एक लाइन से जगह-जगह टेन्ट लगे हुए थे।   90 फीसद टेन्ट पे quchua लिखा हुआ था।  ये एक विदेशी कंपनी है और हाईकिंग के प्रोडक्ट तैयार करती है।फिलहाल पहाड़ पे बस यही नाम दिखाई पड़ता है।  चाहे जूते हो, कपडे हो, टेंट हो या कुछ भी हैकिंग से सम्बंधित हो तो बस quchua । पहाड़ के रहने वालो के नसीब में वोही प्लास्टिक का फटा हुआ जूता ही होता है quchua तो सिर्फ टूरिस्टो के पास होता है।  महंगा बहुत है न इसलिए। खैर ये सब अपनी आँखों और कैमरे में कैद करते हुए हम निचे उतरना शुरू किये थोड़ी देर में निचे उतरे तो भीगने, और थकान की वजह से बुखार जैसा महसूस हुआ।  तो खाना खाया , दवाई ली और सो गए, अगले दिन जल्दी उठने का वादा अपने गाइड से करते हुए।



       सुबह उठे, फ्रेश हुए और हर बार की तरह मैं और बेरा सबसे पहले उठ गये और बाकियो के उठने का इंतज़ार करने लगे।  उठ जाने के बाद लड़कियों के तैयार होने का भी इंतज़ार करना था क्यूंकि उनको थोड़ा बहुत मेकअप भी करना होता था।  खैर, मैं और बेरा कुढ़ते हुए उनका इंतज़ार करने लगे ।  सब तैयार हो गए, नाश्ता हो गया और हम अपने आखिरी मंजिल की तरफ रवाना हुए।  मंजिल पे पहुँच के हमें वापिस यही आना था आज ही।  कुल मिला के 16 km  का सफर था आज का, 8 km जाना और 8 km आना।  1 km ही चले थे  कि एंजेल की तबियत ख़राब हो गयी उसे, उलटी आना शुरू हो गयी।  उसने कुछ खाया नहीं था सुबह नाश्ते में शायद इसीलिए उसकी तबियत खराब हुई।  चाय भी नी पी।  तो अब उसे अपने साथ आराम-आराम से लेके जाना था।
मैंने और अलोक ने उसे लेके जाने की जिम्मेदारी ली और गाना गाते हुए, कहानी सुनाते हुए उसे प्रेरित करते हुए हम उसे ले जाने लगे, 4 km बाद गिरते हुए झरने के किनारे एक चाय वाले की दूकान थी तो वहाँ चाय और नाश्ता किया गया तो एंजेल की तबियत सुधरी।  पहाड़ों में बारिश की वजह से हर बार रास्ता बदल जाता है, क्योंकी पुराना रास्ता ढह जाता है बरसात की वजह से, कई जगह हमें बड़े ही खरनाक रास्तो से जाना पड़ा।  फिर जाके आयी वो जगह जिसे देख के हम सब गदगद हो गए।  एक सौते पे बहुत बर्फ जमी हुई थी , हमारे रस्ते में पहली बार बर्फ मिली और एंजेल ने तो पहली बार पहाड़ी बर्फ को देखा।  हम सबने खूब फोटो लिए और बर्फ में खूब खेला। ऐसे ही खेलते हुए, गप्पे मरते हुए, मजाक करते हुए हम सब अपने आखिरी पड़ाव और हमारी मंजिल हर की दून घाटी पहुंच गए।  क्या गजब की सुंदर जगह है वो , कलकल करके बहती हुई रूपिन नदी जिसके किनारे बैठ के हमने खाना खाया, और फिर उसी नदी में मुँह डाल के जानवरो की तरह पानी पिया। 

    जब हम वहाँ पहुँचे तो दोपहर का 1 बजा था, बारिश अमूमन 2 बजे के बाद होती है पहाड़ो पे तो मौसम एक दम साफ़ था, आसमान एकदम आसमानी रंग से लबरेज था, कहीं कहीं सफ़ेद बादल भी दिख रहे थे हमारे बगल से रूपिन नदी बह रही थी वो भी एकदम साफ़ थी। हम लगभग 3500 mtr ऊंचाई पे थे, पेड़ भी बहुत ज्यादा नहीं होते उतनी ऊंचाई पे तो कहीं कहीं चीड़ के पेड़ नजर आ रहे थे।  हर की दून घाटी 3 तरफ से पहाड़ो से घिरी हुई है एक तरफ स्वर्गारोहिणी पर्वत उसके बगल में ब्लैक पीक, और ऐसे ही पहाड़ो की झड़ी सी लगी है वहाँ 3 दिशाओं में।  हर चोटी बर्फ की सफ़ेद चादर ओढ़े हुए थी वो इतने सूंदर लग रहे थे कि शायद बादल को उनपे प्यार आ गया हो और इसीलिए वो बार-बार अलग-अलग चोटी को चूमने झुक जाता हो, कभी इस चोटी तो कभी उस चोटी।
सब कुछ इतना साफ़, और निर्मल था इसीलिए मेरे पिछले कई वाक्य में साफ़ शब्द बार बार आया है।  उस घाटी में घास के भी बड़े-बड़े मैदान थे जहाँ ओसला गांव के जानवर चार रहे थे।  ओसला गांव वहाँ से लगभग 18km दूर है और वहाँ से लोग अपने जानवर चराने इतनी दूर तक आ जाते हैं।  वहाँ हमने लगभग 2 घंटे बिताये।  और भी समय गुजरना चाहते थे।  अद्भुद शान्ति थी वहाँ।  कोई हॉर्न की आवाज नहीं, कोई फेसबुक कोई वाट्सअप वहाँ काम नहीं करता, बिजली नहीं है।  वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे इंसानी दुनिया में सुविधा कहते हैं।  वहां अगर पानी पीना है तो नदी में
अपनी हथेलिया जोड़ के पानी निकालो और पी लो।  बिमारी तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकती, इतना साफ़ पानी है।  किसी एयर purifire की जरूरत नहीं तो हेमा मालिनी की भी वहां जरुरत ख़त्म।  खाना हो तो प्रकृति माँ ने जो भी दिया है उसी से काम चलाना होगा।  गारंटी है की पोषक
तत्व भरपूर मात्रा में देती है प्रकृति वो भी बिना किसी दवा और छिड़काव के। सोचता हूँ की सब कुछ ऐसा ही हो जाये तो कितना सूंदर होगा।


खैर, वहां से वापिस भी आना ही था जोकि सच्चाई थी।  तो वापिस लौटना शुरू किया।  पहले कलकती धार पहुँचे  वहाँ ठहरे फिर अगली सुबह ओसला गांव होते हुए जहाँ हमने दुर्योधन का मंदिर
देखा और ये भी देखा की यहाँ डाक्टर की कोई सुविधा नहीं है, है भी तो 50-60 km दूर जाना पड़ेगा वो भी पैदल रास्तो से   इसीलिए जब भी कोई टूरिस्ट गांव पहुँचता है तो गांव वाले दवाइयां मांगते है, बुखार की, सर दर्द की, पेट दर्द की और ऐसी ही छोटी बीमारियों की।  हमने भी वहां दवाइयां दी।
और फिर सुपिन नदी में डुबकी लगाते हुए हम शाम को तालुका गांव पहुंचे। मैंने रस्ते में ही अपने कुक से गांव की लोकल जो लोग अपने निजी इस्तेमाल के लिए दारु बनाते हैं उसे खरीद के लाने की बात कर ली।  शाम को हमने लोकल दारु पी और खाना खाया और कल सुबह अपने घर वापिस जाने के लिए सो गए।